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अंजनी कुमार शर्मा 'अंकित'

Tragedy

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अंजनी कुमार शर्मा 'अंकित'

Tragedy

चलता है मजदूर अकेला

चलता है मजदूर अकेला

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पैरों में पड़ गए हैं छाले

धूप में तन हो गए काले

पैदल पथ पर बढ़ते जाते

कुदरत का कैसा है खेला

चलता है मजदूर अकेला।


मन व्यथित, तन थका हुआ है

कर्म पथ पर डटा हुआ है

इन पर प्रतिक्षण विपदाओं का

आता रहता ही है रेला

चलता है मजदूर अकेला।


मुर्झाया तन, होठ है सूखे

कई दिनों से ये हैं भूखे

छोटे बच्चे सोच रहे हैं

कब आएगी सुख की बेला

चलता है मजदूर अकेला।


जिसने कोठी महल बनाया

आज वही सड़कों पर आया

थक जाने पर पर इनको

मिलता है बस काँटों का ही सेला

चलता है मजदूर अकेला।


हुक्मरान सब मौन पड़े हैं

एक-दूजे पर दोष मढ़े हैं

उन पर ध्यान कोई न देता

जिसने विपदाओं को है झेला

चलता है मजदूर अकेला।


समभाव के कथन हैं झूठे

सच्चाई कह दो तो रुठें

कहने को तो बहुत कर चुके

पर मिलता नही एक भी धेला

चलता है मजदूर अकेला।



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