चलो खुद को थोड़ा मुखर कर ले
चलो खुद को थोड़ा मुखर कर ले
चीखों को भीतर दबाकर भीरू की भाँति तमाशा देखते बुत बन गए हैं हम,
मौत के सिलसिलों को देखते आँखों में अश्क भी सूख गए हैं।
कब ज़मीर उठ खड़ा होगा कब टूटेगा सब्र का बाँध,
जाने किसकी करनी का फल सब भुगत रहे हैं।
बात बात में पत्थर उठाने वाले सत्य के साये के पीछे छुप रहे हैं ,
लानत हालातों पर नहीं लानत है दमन सहने वाले दिमागों पर।
बदलाव के बदले गुलामी चुनते मौन को मथ्थे मड़ लिया है,
लकवाग्रस्त समाज की बाँहों में झूल रही है इंसान की कमज़ोरी
विद्रोह को सीने में दफ़न जो कर लिया है।
मौत का तांडव पर्दे चीर रहा है महामारी को
मोहरा बनाते मजमों में हमने खुद को फिर भी बांट लिया है।
एक सुहानी भोर के स्वागत में चलो खुद को थोड़ा मुखर कर लें
सियासी जुमलों को क्यूँ सच मान लिया है।