चिट्ठी
चिट्ठी
नहीं रही प्रिय किसी की, सबने छोड़ दिया मेरा दामन,
छूट गए देखते ही देखते अब, लोगों के घर आँगन,
सुख हो दुख हो या उत्सव हो साथ दिया हर पल मैंने,
मेरी इतनी वफ़ादारी को फ़िर क्यों भुला दिया तुमने,
कागज़ की पाती हूं फ़िर भी कई परिवारों को मैंने पाला,
उन परिवारों की ख़ुशियों को क्यों तुमने यूं कुचल डाला,
सदियों से ना जाने कितने प्रेमी जोड़ों को मिलाया है मैंने,
गुलाब की पंखुड़ियों को भी तो उन तक पहुंचाया है मैंने,
जा रही हूं छोड़कर सबको, वापस फ़िर कभी ना आऊंगी,
दुनियादारी समझ गई मैं, वापस बुलाई भी ना
जाऊंगी,
जब तक ज़रुरत थी मेरी, तुमने मेरा इस्तेमाल किया,
दूजे संगी साथी मिलते ही, तुमने मेरा तिरस्कार किया,
है अभिलाषा इतनी, नई पीढ़ियों को हमारी पहचान देना,
भूल ना जाना, इतिहास के पन्नों में हमें भी तुम स्थान देना,
आती थी जब मैं घर आँगन, वृध्दों को तनहा पाती थी,
क्योंकर ऐसा होता है, बात समझ नहीं कुछ पाती थी,
किन्तु अब आई है बात समझ में, जब मेरी बारी आई,
इसीलिए हो रही तिरस्कृत क्योंकि मैं भी बूढ़ी होने आई।
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