छलावा
छलावा
कैसी पीड़ा है
जो ख़त्म ना होती,
हँसते आँखों में,
मुस्कान है रोती,
चुप चुप से आँसू,
तकियों को भिगोते,
जिंदगी की दूसरी पारी,
क्यों इतनी कष्टकारी ....
क्या इतनी व्यस्त थी कि,
जिंदगी फिसलती गई,
और पता भी ना पड़ा,
जो जिंदगी थे हमारे,
अब
उनकी जिंदगी में
मैं कहीं भी नहीं,
अकेली,हताश, निराश,
शायद कोई स्वप्न था.....
सहसा नींद से जाग उठी,
और लिखने लगी,
एक नई कहानी,
स्वयं के लिए....
जिसमे छलावा ना था,
खुद से,खुद के लिए....
