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Vijay Kumar parashar "साखी"

Tragedy

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Tragedy

छद्म युद्ध

छद्म युद्ध

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झंझावतों से मैं कब घबराया हूं

मैं तो हिमालय से टकराया हूं

डरा हूं, अपनों के छद्म युद्ध से,

वरना में शूलों से हंसता आया हूँ


जितना अधिक दर्द देते है,अपने 

उतना अधिक न तड़पाते है,सपने 

किसी के आगे क्या दामन फैलाऊं?

सब में दिख रहे है धवल दाग घने


कितनी बार खुद को समझाया है

सब कुछ तो यहाँ साखी माया है

टूटते है शीशे पत्थर की चोट से,

यहां घट में शब्दों से खून आया है


पर फिर भी ये मन नहीं मानता है

ये सबको ही यहां अपना जानता है

कैसे अब इस दिल को समझाऊं?

फिजूल में नहीं बनता कोई साया है


गिर के उठने की कोशिश में साखी,

जग-दलदल में भीतर धंसता गया हूं

अब तो जाग भी जा, ओ मुसाफिर

अंधेरा भी तुझे उजाला देने आया है


महाभारत में तो एक ही शकुनि था

आज तो हर घर में शकुनि पाया हूँ

रामायण में भी एक ही थी मंथरा,

हर घर में मंथरा देख चकराया हूं


छद्म उजाले को देखना तू छोड़ दे 

मोह-माया का जाल तू तोड़ दे 

दुनिया में कोई किसी का नहीं है

ख़ुद के श्रम से कुंए में पानी आया है


बाकी सब दुनिया में दिखावा है

हर शख्स यहां स्वार्थ में नहाया है

बालाजी ही देंगे तुझे यहां सहारा है

बाकी हर रिश्ता खून में सना पाया है

दिल से विजय



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