छाले
छाले
करते दिन रात जी हुजूरी
भरते आह फिर भी सारी
ना जल पाए वो चूल्हा भी
ना समय निभाये अब यारी
तपती धूप में वो सेकें खुद को
फिर भी रोटी आधी ही खाये
महँगाई ने मारा इस कदर अब
थाली से पकवान दूर होते जाये
बच्चे अर्धनग्न उसकी लाचारी
शिक्षा तो दूर बहुत है इनसे अब
रोटी बनी सबसे बड़ी मजबूरी
थका है पर नींद नहीं है अब
मेहनत के सिवाए कुछ नहीं आता
फिर भी घर मुश्किल से चल पाता
उम्मीद अब सुख की किससे पाले
हाथ पैरों में तो पड़ गए अब छाले।।