चेहरा
चेहरा
कभी किताबों में चेहरा
कभी चेहरे में किताब
इन दो किताबों के द्वंद में
न जाने कितने मर्तबा
हुए फेल असली किताबों में
बावजूद इसके अच्छा लगता था
उल्झे रहना उसी जुल्फों के बीजगणित में
कई दफे मन को समझाया
और समझ में आया भी
परंतु उनके अश्रुमोती के समक्ष
प्रतिज्ञा निबह न सका बहुत दिन
और फिर वही रटा रटाया फार्मूला
बाबू सोना अब मत रोना
पर आहिस्ता आहिस्ता उम्र के साथ
समझ में आने लगा था
जज्बातों का मकड़जाल
निष्कर्ष यह की
जितना ही आसां था
उनके लफ़्ज़ों को समझना
मन को पढ़ना उतना ही दुश्वार
खासकर उन लम्हों को
जब गुफ्तगू के वक्त सर झुकाए रहती थी।