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मिली साहा

Abstract

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मिली साहा

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चारु चंँद्र की चंचल किरणें

चारु चंँद्र की चंचल किरणें

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चारु चंँद्र की चंचल किरणें,

स्वर्ण सी आभा निश्छल किरणें,

शनै:-शनै: स्नेह स्पर्श कर वसुंधरा को,

विस्तृत स्वरूप दर्शाती हैं ये स्वच्छंद किरणें।


रात की चुनर से छन कर आती,

तम में निखरती उज्जवल सी लगती,

चहुँओर बिखेरकर स्वर्ण सी नर्म चांँदनी, 

कल-कल बहती सरिता के जल को है छूती।


चंँद्र संग इठलाती और बलखाती,

कभी शर्माती हुई वो मंद-मंद मुस्काती,

स्याह अंँधेरी रात में देखकर चंँद्र की झलक,

प्रीत रंग में रंग कर फूलों सी खिल-खिल जाती।


कभी तरु कभी कुसुम का श्रृंगार,

कभी बन ये रत्नगर्भा के गले का हार,

पवन की ताल पर नृत्य मुद्रा में सुसज्जित,

अपना संपूर्ण सौंदर्य यह प्रकृति में बिखेर देती।


कभी ले जाए यह यादों के पार,

कभी खोले है किसी के दिल का द्वार,

देख चंचल किरणों की ये मनोरम चंचलता,

चंद्र भी स्वप्न तरी में विराजित होकर करे विहार।


लेखक के कलम की कहानी,

कवियों के दिल से निकलती वाणी,

चारु चंँद्र की चंचल किरणों की आगोश में,

कभी कोई नज़्म तो कभी ग़ज़ल बनती सुहानी।


किरणों से सजा धरा का कण-कण,

देखकर ही आनंद विभोर हो जाता मन,

अद्वितीय छटा झलकती चंद्र संग किरणों की,

जिसे देखने को किसके व्याकुल नहीं होते नयन।


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