चाहत
चाहत
ऐ दुनिया भी कितना गजब है
तरह तरह की है तो सब,
पर है इसके एक एक हिस्से
चाहत में सजाते अपने अपने ख्वाब।
कितनी सुन्दर है पकृति की रचना
भरे है नदिओं से, बहती झरणा,
सबकी प्यास बुझाते रहते यहाँ पे
चाहत,अन्त मे समन्दर से मिलना
उनके साथ हरा भरा पेड़ पौधे
बढ़ाते मिलके यहाँ पकृति की शान,
उनकी छाओं धुप से बचाता रहेता
चाहत उनकी बचाएँगे यहाँ सबकी जान।
इनके वजह से सुरखित पशु पंछी
अपनी अपनी जिन्देगी सब जीते रहते,
खुदकी संसार अपनी तरीके से बनाते
दुनिया मे जीने की चाहत रखते।
इन सब के साथ रहेता इनसान
इनको अपना कभी मानता, कभी नहीं,
सबसे समझदार होता और स्वार्थी भी
उसका चाहत का कोई अन्त नहीं।
कभी वो नदियों से खिलवाड़ करता
कभी पेड़ पौधों का नाश करता,
पशु पंछिओं को भी तड़पाता रहेता
सबका चाहत के साथ ही खेलता।
इस खेल खेल मे वो फिर
कुछ नहीं सीखता, स्वार्थी बन जाता,
रिश्ते, नाते, दोस्ती,अपनापन टूट जाते
कितनो की चाहत की गला खोटता।
आज देखो वो कितना गिर गया
प्यार की लब्स भी भूल गया,
सब मे फायदे ही धुंढ़ता रहेता
असली चाहत कहीं पीछे छोड़ आया।
चैन शान्ति अमन सब छुपे हुए
वक़्त को सवाल वो करते रहते,
कहेते, इनसान का सोच बदल डालो
इसी चाहत चाहत, उम्मीद मे देखते।
अब तो वक़्त है कुछ समझो
इन्सानियत की मूल भाब को परखो,
प्रकृति तो हमारे, हम उसके प्यारे
सोच बदलने की चाहत जगाके देखो।