चाह
चाह
चाह नहीं मैं किसी महल की,
कोई चोटी या कंगूरा हूँ,
ना ही चाहूँ वो राह कभी,
जिन पर मैं बस चल पूरा हूँ।
ना चाह रही इस जीवन में,
मेरी हर इक्षा का मान रहे,
ना चाहत जब जाऊं जग से,
बस हर मन मेरा ध्यान रहे।
कब चाहा था हर स्वप्न मेरा,
मैं चाहूँ तब ही साकार रहे,
ना ही ये मन मैं रहा कभी,
जग मेरा चाहा आकार रहे।
मैंने तो बस जब भी चाहा,
सबके हित ही मेरा हित हो,
मेरा हर श्रम उसका प्रतिफल,
श्री हरि चरणों को अर्पित हो।
मैं मंदिर की सीड़ी बन कर,
चूमूँ हर पग जो आता हो,
बनूँ थाल आरती का प्रभु के,
हर घर आशिष जो लाता हो।
हर साँस मेरी और हर धड़कन,
माधव की बंसी सी बजती हो,
बस सेवा में ही हो संसार मेरा,
खुशियाँ हर आँगन रजती हो।
ये मानव काया जो पंचतत्व,
पंचामृत इसमें बस मिल जाये,
भक्ति करुणा आभार समर्पण,
ममता से ये अंबुज खिल जाये।
जाने से पहले इस जग से,
प्रभु ऐसा लीला मंचन हो जाये,
मन वृन्दावन मति काशी मय,
ये नश्वर तन अब कंचन हो जाये।
ये नश्वर तन अब कंचन हो जाये।।
