चाह मेरे मन की
चाह मेरे मन की


चाह मेरे मन की
लिखना चाहूँ तेरी महिमा
असंख्य पेड़ मेरी क़लम हों
समुंदर भर स्याही हो रखी
आकाश जितना पन्ना लिखने को ।
कल्प समय मुझको मिल जाए
लिख ना पाऊँ तो भी मैं इसको
दीन दयाल, दुख हरने वाले
हे प्रभु, तुम तो अनन्त हो ।
तेरी महिमा अपर अंपार है
मेरी बुद्धि तो बस थोड़ी सी
हृदय में तुम्हें बसाना चाहता
कब से यही चाह है मेरे मन की ।
मन की आँखों से देखूँ तुझे कैसे
कैसे सब कुछ तुमको अर्पित करूँ
चित तुझमें सदैव लगा रहे
पाप कर्म से सदा मैं डरूँ ।
परमधाम के वासी परमात्मा
मुझे भी तेरा धाम मिले क्या
तेरा संग हूँ पाना चाहता
तू ही बता अब मुझे करना क्या ।
नित्य भजन ना करूँ तुम्हारा
ना तेरी पूजा कर पाता
तेरी लीला का ना गान करूँ
फिर कैसे जोड़े तू मुझसे नाता ।
सत्य का मार्ग तू दिखला दे
पीछे पीछे चलूँ तुम्हारे
पदचिन्ह तुम्हारे राह दिखलायें
कष्ट कटें तब मेरे सारे ।
अहंकार मेरा नष्ट करो तुम
दया, धर्म मेरे हृदय में भर दो
पाप, ताप, संताप मेरे सारे
कृपादृष्टि से दूर तुम कर दो ।
अंतरमन में सबके बसते तुम
मुझको मुझसे ही मिला दो
संसार भँवर में डूब रहा मैं
मेरी नय्या पार लगा दो ।
अजय सिंगला