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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

Classics

चाह मेरे मन की

चाह मेरे मन की

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चाह मेरे मन की 



लिखना चाहूँ तेरी महिमा 

असंख्य पेड़ मेरी क़लम हों 

समुंदर भर स्याही हो रखी 

आकाश जितना पन्ना लिखने को ।


कल्प समय मुझको मिल जाए

लिख ना पाऊँ तो भी मैं इसको 

दीन दयाल, दुख हरने वाले 

हे प्रभु, तुम तो अनन्त हो ।


तेरी महिमा अपर अंपार है 

मेरी बुद्धि तो बस थोड़ी सी 

हृदय में तुम्हें बसाना चाहता 

कब से यही चाह है मेरे मन की ।


मन की आँखों से देखूँ तुझे कैसे 

कैसे सब कुछ तुमको अर्पित करूँ 

चित तुझमें सदैव लगा रहे 

पाप कर्म से सदा मैं डरूँ ।


परमधाम के वासी परमात्मा 

मुझे भी तेरा धाम मिले क्या 

तेरा संग हूँ पाना चाहता 

तू ही बता अब मुझे करना क्या ।


नित्य भजन ना करूँ तुम्हारा 

ना तेरी पूजा कर पाता 

तेरी लीला का ना गान करूँ 

फिर कैसे जोड़े तू मुझसे नाता ।


सत्य का मार्ग तू दिखला दे 

पीछे पीछे चलूँ तुम्हारे 

पदचिन्ह तुम्हारे राह दिखलायें  

कष्ट कटें तब मेरे सारे ।


अहंकार मेरा नष्ट करो तुम 

दया, धर्म मेरे हृदय में भर दो 

पाप, ताप, संताप मेरे सारे 

कृपादृष्टि से दूर तुम कर दो ।


अंतरमन में सबके बसते तुम 

मुझको मुझसे ही मिला दो 

संसार भँवर में डूब रहा मैं 

मेरी नय्या पार लगा दो ।


अजय सिंगला


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