बूढ़ी आँखें
बूढ़ी आँखें
राह तकते हुए ये आंखें बूढ़ी हो गईं।
तुम्हें देखने को निगाहें तरस गई।
जो कोमल सा था बदन।
उस पर झुर्रियां हैं पड़ गईं।
जो रहती थी सजी हमेशा।
सूती साड़ी में लिपट कर रह गई।
राह तकते हुए ये आंखें बूढ़ी हो गईं।
(परदेस में रह रहे बेटे के लिए मां क्या सोचती है)
हर साल होली और दीवाली को बस तुझे ही ढूंढती।
और जब आते न तुम, तो तुम्हारी यादों को ही ओढ़ती।
यादें तुम्हारी रख कर सिरहाने, रातों को वो जागतीं।
खाया होगा या नहीं कुछ, भी तो नहीं तुम सो गए।
इसी खयाल में रातें कटीं, इसी में भोर हो गई।
राह तकते हुए ये आंखें बूढ़ी हो गईं।
(ससुराल में जो ब्याह कर चली गई उस बेटी के लिए चार पंक्तियां)
फागुन में बाट जोहती मां, बिटिया मगर आई नहीं।
आयेगी अब छुट्टियों में, सोचती बस रह गईं।
बच्चों की होगी पढ़ाई शायद समय मिल पाया नहीं।
आई न अब भी, चलो कोई बात नहीं, सावन में तो आएगी।
ये ही सोचती बस, सोचती बस, इंतजार करती रह गईं।
राह तकते हुए ये आंखें बूढ़ी हो गईं।
बैठती अंदर कभी, बैठकर बाहर राह देखती।
देखती उस बरगद को, जिसपे झूला खाली है अभी।
और सोचती मन में वही जो आवाज, बाग से आती थी लाल की।
और दूंढती छम छम वही झंकार बिटिया की,
जो कभी अम्मा बुलाती थी लाड़ से l
सिर्फ यही उधेड़बुन जिंदगी भर चलती गई।
राह तकते हुए ये आंखें बूढ़ी हो गईं।