बसंत की झांकी
बसंत की झांकी
पिला उपवन, पिला प्रियतम का ऑंगन,
देख चहुं दिशाएं, प्रफुल्लित हुआ मन का ऑंगन।
इस अविरल, अवरोधक से मन उपवन में,
इस मादक सी मंदाकिनी में जीवन के इस रूप को हर्षित करता यह बसंत आया।
रोम रोम में इस मन उपवन में आने को करता है प्रियतम की बाहों में,
प्रियसी से प्रियतम की सांसों से क्रंदन करने को करता है ये मन।
सुबह सुबह की इस सुर्ख हवाओं में डाल हाथों के हाथ,
उस नव विवाहित से पलों में खो जाने को करता है ये मन।
इस सुर्ख सी निकलती सूरज की किरणों में तुम्हारे केशों में खो जाने को करता है ये मन,
छोड़ कार्य पथ को तेरे इस चितवन में खो जाने को करता है ये मन।
डालती सी शामों में बढ़ते हुए इस दिन के पहरों में,
तुझमे ही डुबे रहने को करता है ये मन।
रात की ठंडी की सुकर्ण में,
दिल करता है मन तेरे ऑंगन में रहने को।
लेकिन बच्चों के आने से और तुम्हारे रोज रोज के कामों से,
कैसे आनंद में इस मतवाली सी बसंत की बेला का।