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Kusum Kaushik

Abstract

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Kusum Kaushik

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बसंत कैसा!

बसंत कैसा!

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आयो री आयो मेरो बसंत आयो

किसी की सरसों खिल गयी

किसी की झर गईं बेरी

मेरे आँगन अब भी पतझड़

मेरा बसंत ऐसा?

कहीं कूकती कोयल मीठी

कहीं बोलते मोर पपीहे

यहाँ रो रहे ओंधे उलूक

मेरा बसंत कैसा?

कोई पहने बासंती साड़ी

कोई चूनर धानी

मेरे अब भी उधड़े पैबंद

हाय बसंत ये कैसा?

कहीं फाग की तैयारी में

रंग भरी हैं पिचकारी

मेरे तो फैला अंधड़ सा

यहाँ बसंत है कैसा?

 

 


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