कटुता
कटुता
हूँ बहुत आभारी सभी जो मेरी निद्रा भग्न की
कर दिया सतर स्तंभित जो पड़ी थी लोथ सी
ले रही थी गोते अथाह निश्चिंतता के समद में
माना कुटुम्बी ऐसे सभी जो काम आयें वक्त में
नेकी कर दरिया में डाल समझी न थी आज तक
आज हूँ उस हश्र तक न सोच पहुंची जहाँ तक
रह रह के हैं फूटते गुब्बार सबके दिलों के
छल्ले निकलते हैं उन्हीं से आज देखो धुंए के
शायद लगी है नजर किसी की जो ये भूचाल है
या फिर जानकर ही खुद अपना बुलाया काल है
इतनी कटुता हृदय की जो न पीई जाए खुद भी
क्यों की अर्पित गैर को जो न है तेरा अरि भी.
