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Kuch unkahi Kuch unsuni

Romance

4  

Kuch unkahi Kuch unsuni

Romance

"बसंत बाबरे"

"बसंत बाबरे"

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ऐ बसंत तुम आये हो तो, पिय को साथ लिवा लाते

बरसों की बंजर इस भूमि पर, प्रेम सुधा बरसा जाते

होती वर्षा माधुर्य रस की, कुछ तुम भी तृप्ति पा जाते

इस सूने मन के वन-उपवन में, जूही पुष्प खिला जाते

झर-झर झरते इन नयनों की, टूटी वो आश लिवा लाते

करते इनकार जो वो आने से, दे मेरी सौगंध लिवा लाते

सुन बसंत मेरे बाबरे तू, तेरा आना अब सार्थ नहीं होगा

जब तक मेरे प्रियतम का,इस देहरी पर स्वागत ना होगा

जाओ जा कर तुम खिल‌ जाओ, उस पार किसी वन में

अब तक तो पतझड़ ठहरा है,मेरे मन के सूने आंगन में 

जाओ तो जाकर प्रियतम को, मेरा ये संदेश सुना जाना

उन बिन सूखे नित-नित ये डाली, सींच इसे सहला जाना

बोलो कब आओगे तुम घर,कब होगा मेरे बसंत का आना।


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