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Ashish Vairagyee

Romance

0.2  

Ashish Vairagyee

Romance

बस तुम चली आओ

बस तुम चली आओ

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ये अजीब इत्तेफ़ाक है

तुम होकर भी नहीं हो

और मैं मौज़ूद होकर भी

अकेला हूँ अपने आप में

मेरी हर सांस में गरमाहट है

तो तुम्हारे अहसास की

और तुम सन्नाटे की वज़ह हो

मेरे हर ख्यालात की

मैं महसूस कर लेता हूँ तुम्हें

मगर देख नहीं सकता

बात कह लेता हूँ तुमसे

मगर तुम सुन नहीं पाती

आँसू इस फ़िराक में आते है

कि तुम आओगी और उन्हें पोंछोगी

और दरवाज़े वैसे ही खुले रहते है

जैसे मैं उन्हें खुला छोड़ के आता हूँ।

खिड़कियाँ जालो से ऐसे टिकी हैं

मानो डाली दरख़्त से बस टूटने को हो

क़ालीन भर रहा है अपनी आखिरी साँस

और पर्दे अपनी आबरू बचाने में लगे है

तुम्हारे होने से ये मकान घर लगता था कभी

अब तो ज़ख्मों के टाँके खोले राह देखता है

नुमाइश लगाए है अपनी की तुम आओगी

मैं बयान नहीं कर पाता दर्द अपना 

और तुम हो कि देखने को राज़ी नहीं

चली आओ इस बहाने से की मैं हूँ ही नहीं

उन दरवाज़ों को बंद करने

उन खिड़कियों को खोलने 

उन पर्दों को सवारने, क़ालीन पर चलने

इस मकान को घर बनाने

एक आखिरी बार चली आओ....


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