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Shilpi Goel

Abstract

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Shilpi Goel

Abstract

बोझिल

बोझिल

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चाहतों के बोझ तले दब कर बोझिल से हो गए हैं।


बदले में क्या मिलेगा यह सोचकर, 

मदद के लिए उठे हाथ भी रुक से गए हैं।


अपनेपन के दायरे भी आज बहुत छोटे हो गए हैं,

अंधों सी दौड़ती इस दुनिया में हम भी अंधे हो गए हैं।

जाने हम कहाँ खो गए हैं,

खुदगर्ज़ बहुत हो गए हैं।


भूलकर भावनाएं सारी,

असंवेदनशील से हो गए हैं।

संबंध कोरे कागज़ से हो गए हैं,

परिवार चार रास्तों में लुप्त हो गए हैं।

 

रह गई है तो पैसों की हवस लोगों में, 

सब रिश्ते बेमानी से हो गए हैं।

धोखा खा-खाकर शायद हम भी,

धोखा देनेवालों की कतार में शामिल हो गए हैं।


उम्र बढ़ने के साथ-स

ाथ समझ सारी खो गए हैं,

ऊपर उठने की चाह में हम और भी नीचे हो गए हैं।

हल्की सी डांट पर रोने वाले हम

आज पत्थर से हो गए हैं,

बनावटी संबंधों को अपना समझने की गलती कर

उन्हीं के द्वारा पैरों तले कुचल दिए गए हैं।


दो पल सुकून के नसीब नहीं हमको,

बदलते वक्त के साथ हम इतना जो बदल गए हैं।

निकालने को तो निकालते हैं सबमें गलतियाँ हज़ारों, 

खुद को तराशना शायद भूल गए हैं।

 

कुछ भी नहीं रहा जीवन में पहले जैसा

यह सोच-सोचकर बेचैन से हो गए हैं।

 

दूसरों में दोष ढूँढ़ते-ढूँढ़ते भूल बैठे हैैं

हम स्वयं भी स्वयं से नहीं रह गए हैं। 


चाहतों के बोझ तले दब कर बोझिल से हो गए हैं।


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