बंद पिंजरे में
बंद पिंजरे में
पिंजरे में कैद होकर ,फड़फड़ाता था वो रोज ,
खुले आसमान में रहने का ,बहुत पुराना था उसे रोग।
मगर अब सब बदल चुका है ,नए - नए शौक का अब ,
इस मनुष को भी ,नया रोग लग चुका है।
बंद पिंजरे में जब ,वो पंछी फड़फड़ाता ,
सचमुच उसे देख हर बच्चा ,जोर से ताली बजाता।
एक और अमीर लोगों के ,बच्चों की खुशी ,
तो दूसरी ओर उस पंछी की ,छटपटाहट की बुझी।
अंत में जीत गई खुशी ,और हार गई वो तड़प ,
यही तो ज़िन्दगी है ,जिसमे जी रहे सब बेधड़क ||
