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S Ram Verma

Abstract

3  

S Ram Verma

Abstract

बंद मुट्ठी !

बंद मुट्ठी !

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सोचा था मैंने 

इस मेरी मुट्ठी में  

संभाल कर और  

सबसे छुपा कर 

रख लूंगा मैं तुम्हें ! 


बड़े जतन से 

बंद की थी ये 

मुट्ठी मैंने रख 

कर यु अंदर तुम्हें !


पर न जाने कैसे 

और कब फिसल  

कर मेरी मुट्ठी से यूँ  

बीतते इस वर्ष की 

भांति आगे बढ़ गई तू ! 

  

सूखी रेत की किरकिरी 

की तरह मेरी इस हस्ती 

में रड़कती रह गयी तू !


अब जब देखता हूँ  

खुद की मुट्ठी तो आँखें 

मेरी यु ही बरबस समंदर 

हुए जाती है ! 


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