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अभिषेक कुमार 'अभि'

Inspirational

5.0  

अभिषेक कुमार 'अभि'

Inspirational

बीज-अचल

बीज-अचल

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ओ ऊँचे चौड़े पर्वतों !

हरितांचल-धारी भूधरों !

क्या कहते हो मुझको निर्बल ?

मत समझो मुझको हीन अबल

न आँको कि मैं हूँ दुर्बल।

               

माना कि मैं हूँ ‘लाल’ इला का,

उसी के शीतल गोद-सुप्त हूँ।

अंचलावृत हूँ मैं धरा के,

मैं ‘लावा’-कृषानु हूँ मगर;

मुझमें शक्ति है दहक, प्रबल।


एक दिन ऐसा भी आएगा,

विक्राल, फूट कर आऊंगा।

माँ वसुधा के आँचल को चीर,

ज्वाला बन कर मैं छाऊंगा

भावी पर्वत कहलाऊंगा।

                  

फिर काल चक्र से खेलता मैं,

एक दिन पूरण हो जाऊंगा।

और छवि निखर कर प्रखर मेरा,

जग-विस्थापित हो जाएगा

‘उर्वी’ का ‘नग’ बन जाऊंगा।


फैलेगा दामन चहोदिशी,

और जीवाश्रय कहलाऊंगा।

फूटेगी अमृत-सरित छलक,

प्राणों को करेगी तृप्त सुधा

देवों का मठ बन जाऊंगा।


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