आज की औरत
आज की औरत


समय के साथ-साथ
आज बदल गई है औरत
घिस घिसकर वो निखर गई है
अलग सांचे में ढल गई है
कभी मोम बन पिघल जाती है
कभी ज्योत बन जल जाती है
राहों को कर देती है रोशन
कभी बना देती पत्थर को पारस
आज वह अबला नहीं
सक्षम सजग सबला है
हर ऊॅंचे ओहदे पर बैठी वो
प्रेम स्नेह ममता की मूरत है
जो कल घुट-घुट कर जीती थी
हर दुख दर्द सब सहती थी
आज आधुनिक युग की निर्माता है
हर चीज से उसका नाता है
देश हो या कोई समाज
उसने अपनी जगह बनाई है
हर पद पर बैठी वो
सम्मान की अधिकारी है
खुद के प्रयासों से
हर बाधा उस से हारी है
आज वो पुरुषों के हाथ की
कोई कठपुतली नहीं
वह तो जगत जननी
दुर्गा और काली है
आज वह खिलती जा रही
पढ़ती और बढ़ती जा रही
ऊॅंचाइयों को छुती जा रही
सारे सपने सच करती जा रही
हर औरत के अंदर छुपें
होते हैं कई संजीदें रूप
इन विविध रूपों को वो
आज चरितार्थ कर रही
कदम से कदम मिलाकर
वो आगे ही बढ़ रही
पूरे परिवार की
धुरी है वो
घर बखूबी संभालती है
हर किसी के अनुरूप
खुद को वो ढालती है
घर के बाहर भी उसने
एक नया रूप इख्तियार किया है
अपनी काबिलियत से
हर बाधा पार किया है
आधुनिकता के ज्ञान के साथ
आज भी निभाती परंपराओं को
समय के साथ बदलती जाती
हर सांचे में ढलती जाती
असंभव को संभव कर रही
अवसादों को दूर कर रही
खुद को व्यवस्थित कर हर जगह
सब कुछ ही संभाल रही
अपने दायित्वों में निमग्न
वो सारे कार्य करती है
एक औरत के मन की जड़े
इतनी विशाल होती है
जो जीवन की चेतना का
अनुपम संचार करती है
व्रत उपवास और प्रार्थनाओं से
खुद में ऐसी भक्ति रखती है
इस जहां को भी हिला दे
ऐसी शक्ति रखती है
आज वों चल सकती है
हर जीवन पथ पर
हर पथ की वो धावक है
चलती तपती लड़ती दौड़ती
आगे ही बढ़ती जाती
एक स्वतंत्र सार्थक साधक है
आने वाले सालों में
बहुत कुछ बदलेगा
एक दिन हर औरत के
अस्तित्व का रंग खूब निखरेगा