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Kusum Joshi

Abstract

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Kusum Joshi

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भोर की पहली किरण

भोर की पहली किरण

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भोर की पहली किरण जो फैली,

चारों ओर प्रकाश खिला है,

चिड़िया चहके, वन वन महके,

नभ वसुधा से ऐसे मिला है,


लाल रश्मियां लाल दिशाएं,

दिनमणि की छवि लाल हुई है,

तम की चादर ऐसे सिमटी,

कहीं कोने में जाके छिपी है।

भोर की पहली।


शीतल-शीतल पवन जो बहती,

जीवन का एहसास नया है,

द्वार को खोले किरण सुनहली,

घर आंगन सब चमक गया है,


स्वर्णिम अम्बर स्वर्णिम वसुधा,

सृष्टि ये सारी स्वर्णमयी है,

तारों के रथ में चले सुधाकर,

रात थी उनकी बीत गयी है।

भोर की पहली।


जाग गए खग-विहग भी सारे,

कोलाहल चहुँ ओर हुआ है,

रवि सरिता में ऐसे चमका,

जल सरिता का जाग गया है,


गांव भी जागा, शहर भी जागा,

वसुधा का कण-कण जागा है,

जाग जा मेरे मन अब तू भी,

रात ये बीती दिन ये नया है।

भोर की पहली।


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