भक्षक
भक्षक
जब देश जा रहा मरघट की राह तो,
है कोई लग्न में मग्न, हो रहा कोई नग्न।
देश किनके हाथों में थामे हैं हम
हमारा आज और कल हो रहा भग्न।।
लहू पी के बेबसों का बने हैं ये खटमल,
छीन के बिछौना खुद के नीचे रखे हैं मल मल।
निज स्वार्थ में डूबे क्या दूसरों को तारेंगे,
कुचल के ख़्वाब हमारे देखते ये स्वप्न।।
मार्ग दर्शिकाएँ हैं किस आदम जाति के लिए?
अरे! भारत रो रहा माँ की जलती छाती के लिए,
जो जी रहा किसी तिनके की आस लिये,
रक्षक बन के करते ये असहायों को छिन्न।।
ये रक्षा नहीं, भिक्षा की काबिलियत रखते हैं,
मनुष्य होकर भी गिद्ध की नीयत रखते हैं।
जिसका जीवन कोल्हू की है चरमराहट,
लूट कर उनको बनते हैं ये संपन्न।।
