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दशरथ जाधव

Abstract

4.7  

दशरथ जाधव

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परछाई

परछाई

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किसी और की परछाई को, अपना कैसे मान लिया ?

पल भर की अँगड़ाई को, सपना कैसे मान लिया ?


देखा था आँखों ने मेरी, प्यारी हंसों की जोड़ी को,

ख़ूब सजाया था जतन से, दो पहियों की गाड़ी को

हाथ पकड़ने से पहले ही, दूर होना कैसे ठान लिया ?

किसी और की परछाई को, अपना कैसे मान लिया ?


समझ न पाया उसकी चाल, प्रेम का नाम लगा जपने,

क्या बताऊँ मेरा हाल, चाँद भी अब है लगा तपने,

ज़िन्दगी पे मर-मिटने वाला, मरना कैसे जान लिया ?

किसी और की परछाई को, अपना कैसे मान लिया ?


नजरें गड़ाए बैठा हूँ, उसके जाने वाले रस्ते में,

नीलाम कर गए मुझको, उसके चाहने वाले सस्ते में,

भोली सूरत वाली ने, ठगना कैसे जान लिया ?

किसी और की परछाई को, अपना कैसे मान लिया ?


बिकता है प्यार यहाँ पर, खुल गए है इसके बाज़ार,

क्या दर्द हुआ क्या तुम जानों, जब टुकड़े हुए दिल के हज़ार,

जा ठगिनी ! मैंने भी इस छल से, बचना कैसे जान लिया।

किसी और की परछाई को, अपना कैसे मान लिया ?


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