भेदभाव
भेदभाव
न जाने कैसा शब्दकोश,
मानव मन में समाया है,
न जाने किस प्रथा से,
ये भेदभाव अपनाया है।
क्रंदन करती मानवता अब तो,
कैसा समय ये आया हैं,
कही नर की अतिपरिपक्वता ने,
नारी को वस्तु बनाया है,
कही बना दिए ऐसे अंतर,
जैसे रंक और राजा से,
कही बनाए भेदभाव,
चंद कागज के कतारों ने,
कही बड़ा बन गया है ओहदा,
कही ज्ञान भी एक रोड़ा है,
हाय हाय मानव तूने खुद को,
किस राह पर मोड़ा है,
कही मुख को एक निवाला नही,
कही अन्न की बरबादी है,
सिसक रही आज मानवता,
हाय,कैसी ये आजादी है,
जो संस्कृति का पुजारी,
उसको पिछड़ा माना है,
जिसके पास है खजाना,
उस पर ही क्यों तू दीवाना है,
बनाए धरा पर भेदभाव,
अपने ही सहयात्रियों से,
छोड़ जिन्हे धरा से जाना,
बनाते क्यों उन दीवारों को,
एक प्रेमतत्व ही तो है प्यारा,
हर कण कण में जो मिल जाता है,
जीव का हर जीव से,
बस प्रेम का ही तो नाता है,
आओ तोड़े संकीर्ण दीवारें,
भेदभाव जो दे जाती है,
बने मानवता के पुजारी,
सद्भाव, यही तो जगाती है।।
