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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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बह जाता गंदगी का शहर

बह जाता गंदगी का शहर

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निकल रहे आज उनके भी पर

जिनको था कभी हमसे डर

वो इतरा रहे है, दरिया जैसे

पर वो ये भूले हम है, नभचर

हमारे बिन न होगा उनका गुजर

थोड़ी सी हल्दी से पीला होना,

अपने मियां मिट्ठू होना है

सावन बरसता है न जब झर-झर

बह जाता है, तब गंदगी का शहर



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