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बेवफ़ा मोहब्ब्त

बेवफ़ा मोहब्ब्त

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हमने भी क्या ख़ूब खुद को सताया है

एक बेवफ़ा से हमने दिल को लगाया है।


हम जानते है वो हमें बिल्कुल नही चाहते हैं,

फिर भी हमने आज तक ख़ुद को रुलाया है।


ये चाहत हमारे दिल से निकलती क्यो नहीं,

उसने तो साज़न कहकर भी जख्म लगाया है।


हे ख़ुदा तू इतना तो रहम कर ही सकता है,

माटी के पुतले को ख़ाक में मिला ही सकता है।


अब ज़िंदा रहकर भी में क्या कर सकता हूं

कुछ शबनम की बूंदों ने शोले को आज राख बनाया है।


वो दिन था,एक आज का भी क्या ख़ूब दिन है

जब वो कहते थे, तुम्हारे बगैर हमारा क्या होगा ज़माने में।


आज वो ही कहते हैं तुम्हें ख़ुदा ने

धरती पर ही क्यों बुलाया है

आज जीते जी हमे अहसास गया है।


जिंदा होकर मरने का आभास हो गया है

अब मोहब्ब्त करेंगे सिर्फ़ उन्ही पत्थरों से,

जिंसने सदा ही अपने सीने से नीर बहाया है।


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