बेटी की व्यथा
बेटी की व्यथा
माँ निर्दयी हो क्यों मुझे कोख में मारा ?
मेरे अनमोल जीवन को क्यों तूने नकारा ?
तेरी ममता का संसार यहाँ क्यों है हारा ?
बहने से पहले मिटा दी क्यों जीवन धारा?
मैं तो भावों के सागर सी उमड़ती गोद में।
प्रेम की सरिता सी बहती यहाँ मोद में।
चिड़िया सी चहकती, तितली सी मचलती।
खुशियाँ बाँट चार चाँद लगती प्रमोद में।
विवश हो क्यों नष्ट किया जीवन प्यारा?
माँ निर्दयी हो क्यों मुझे कोख में मारा ?
रिश्तों की बगिया में महकती फूल सी।
अरि के सम्मुख कटकती कंटक-शूल सी।
विद्या के आँगन में चमकती सूर्य सी ।
सब की सेवा करती, बनी तेरी भूल सी ।
फिर मेरे गुणों को क्यों तूने बिसारा ?
माँ निर्दयी हो क्यों मुझे कोख में मारा ?
त्याग की गरिमा हूँ, संसार की पूर्ति हूँ ।
मातृत्व की महिमा, ममता की मूर्ति हूँ ।
सहनशक्ति की देवी, प्यार की भक्ति हूँ ।
मधुरता की पहचान, दृढ़ता की शक्ति हूँ।
फिर मेरे अस्तित्व को क्यों तूने नकारा ?
माँ निर्दयी हो क्यों मुझे कोख में मारा ?
बिना मेरे तो सम्पूर्ण संसार है अधूरा ,
जीवन का कोई रिश्ता होता नहीं पूरा ।
ईश्वर की रचना हूँ, जीवन मेरा साकार ।
मुझे मारने का किसी को नहीं अधिकार ।
बेटी होना ही बस क्या दोष है हमारा ?
माँ निर्दयी हो क्यों मुझे कोख में मारा ?
जननी-जनक आप तो नित पूजनीय हो ।
बेटी को मार अपराध करते दंडनीय हो ?
हृदय क्यों न फटता ऐसा कुकृत्य करते ?
क्या बेटे ही सृष्टि के सब सपने गढ़ते ?
क्या हत्या के अलावा बचा न कोई चारा?
माँ निर्दयी हो क्यों मुझे कोख में मारा ?