बड़े घर की बहू
बड़े घर की बहू
हाँ ,वो छोटे से शहर की
अल्हड़ सी लड़की
ब्याह के आई, लेकर
मन मे अनगिनत उमंगे।
बड़े शहर में ब्याही थी वो
ऐसा उसकी मां ने कहा था।
सपनों के पंख फैलाए वो
बढ़ चली अपने पी के घर ।
था दूर अपनो से, अब उसका
ये नया सफ़र ।
याद है उसको,कितना
इठलाई थी,सखियों में
जब जाना सबने , कि
रिश्ता आया है बड़े शहर से,
बनकर बड़े घर की बहू
अब तो मैं इठलाऊँगी ।
हर रोज़ नए नए किस्से
उनको सबको बतलाऊंगी ।
लेकर मन मे ढेरों खुशियां
पाँव धरा उसने फिर नई डगर में
थाम के अपने पी मन बसिया को।
झुकी नज़रो से वो चल दी थी
उन सबके पीछे-पीछे ,
ठिठक गए थे पैर वही,जब
देखा उसने,
अपने पी का अंगना ,
छन से टूटा उसका,
जैसे था कोई सपना ।
वो छोटी सी खोली थी,
उस बड़े शहर की
जहाँ बिताने थे उसको
अब ये दिन और रैना।
नम आँखों से था,
उसने खुद को संभाला
अनजाने में ही बन बैठी थी,
अब बहू वो इस घर की।
जिस घर मे ,
सोने को न एक जगह
मिली थी उसको।
क़िस्मत ने बड़े शहर तो पहुँचाया,
मगर साथ में इस छोटे से घर की बहू बनाया ।
हाँ वो अल्हड़ सी लड़की
ना जाने कहां खो सी गई
एक क्षण में ही वो मासूम
अब परिपक्व हो गई ।
नियति को अपनाकर
ढल ही गई, इस घर में
जहाँ सब कुछ है रखा
उसने बहुत सलीक़े से
मगर कहीं न कहीं
वो ख़ुद को खो गई ।।
एक चुलबुली लड़की से
वो अब बहू बन गई ।
ख़ामोशी से अपना,वो हर
दर्द दिल मे दफ़न कर गई।।
मायके में कहलाने को, अब
वो बड़े घराने की थी, बहू जो बन गई।