बचपन वाली होली
बचपन वाली होली
बचपन वाली होली खुशियों का पिटारा था,
दोस्तों के साथ होली का बजता नगाड़ा था,
बिन जान पहचान के भी रंग देते थे सबको,
हर गली हर मोहल्ला तब लगता हमारा था।
घर-घर से आती थी जब गुजिया की महक,
चेहरे पर मुस्कान के साथ मन जाता चहक,
अनगिनत पकवान खा जाते बेफिक्र होकर,
मस्तियांँ भरपूर छोड़ते नहीं थे कोई कसक।
तीन-चार दिन पहले से, होती थी तैयारियांँ,
कौन सा रंग लेना है, कौन सी पिचकारियांँ,
लाल पीला हरा गुलाबी बाजारों में रंग देख,
मचलने लगता मन भरता था किलकारियांँ।
बेसब्री से किया करते थे, होली का इंतजार,
सुबह से ही पिचकारी लेकर हो जाते तैयार,
लगा लेते थे मुख पर हम, भर-भर कर तेल,
जो निकलता सामने से कर देते रंगों से वार।
हुड़दंग होता था आती जब दोस्तों की टोली,
रंगों के संग खुलती, बातों की रंगीन पोटली,
आज भी बचपन की खिड़की से झांँकती है,
मासूमियत के रंग में रंगी, बचपन की होली।
एक से एक नमूने बन, एक दूजे को चिढ़ाते,
जो दिखे सूखे साफ गुलाल उसको मल देते,
ऐसी थी वो होली हमारी, ऐसी थी हमजोली,
जिसके रंग आज भी दिल के कोने में बसते।
होतीं कपड़ों पर रंग गुलाल की ऐसी मलाई,
निकलते नहीं थे रंग कितनी भी करो धुलाई,
अगले दिन स्कूल जाते थे रंगीन चेहरे लेकर,
कौन कितनी होली खेला, सब देता दिखाई।
बड़े होकर आज भी तो वही होली मनाते हैं,
किंतु अनजाने को रंगों तो बुरा मान जाते हैं,
होली तो त्योहार है प्रेम भाईचारे सौहार्द का,
फिर अपने पराए का, रंग भेद क्यों करते हैं।
आओ फिर से बचपन वाली होली मनाते हैं,
जाति पाति भुलाकर एक रंग में रंग जाते हैं,
खुशियों की पिचकारी में प्रेम का रंग भर के,
सारे शिकवे गिले, दिल से निकाल फेंकते हैं।