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Anil chandewar

Abstract

3.5  

Anil chandewar

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धरती पुकार रही हैं…|

धरती पुकार रही हैं…|

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हमने तो हमारा इमान बेचा है,                                                                        

खुद के स्वार्थ के लिए, खुदको बेचा है

धरती पुकार रही है बादल को,

क्योंकी उसका जी.. घुट रहा है


समस्या तो हमने निर्माण की,

और समाधान भगवान् से मांगते है

विवेकता हमारी दाव पे लगी है,क्योंकी

आस्था के नाम पर, बच्चो की बली दी जा रही है


देश की पराधीनता बढ़ रही है,

और विज्ञान गरीब हो रहा है

साम्प्रदायिक दंगे बढ़ रहे है,

फिर भी मेरा देश बदल रहा हैं


हर चीज के विज्ञापन के प्रभाव में,

हम यथार्थता से अंजान होने लगे हैं

हम तो हमारा मताधिकार बेचकर,

सोने की चिड़िया के पंखो को, कमजोर कर रहे हैं


हर दिन का मौसम बोल रहा है,

मानव इंसानियत खो रहा है

इहवाद की जंजीर टूट रही है,

मानव खुद से बेईमान हो रहा है

इसीलिए धरती पुकार रही है, बादल को

क्योंकी उसका जी घुट रहा हैं।


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