बचपन से पचपन...
बचपन से पचपन...
बचपन बीता बरगद के छाव में ,
सहलाया तुलसी ने दर्द भरे घाव में।
दादा-दादी के प्यार में, नाना-नानी के दुलार में,
स्कूल बीता सहमा-सहमा टिचर के डरकर।
कालेज में नए-नए मित्र जुडे ,नए-नए भाव गढ़े,
जीवन के श्रावण मास मे मन नव-यौवन की
मद-मस्ती में झूला झूले।
प्रेम की फुहार से उत्साहित मन नव सृजन को प्रेरित ,
हर दम चले परीक्षाओं का दौर,
कभी लगती क्षण में नैय्या पार,
कभी-कभी छूटे मझधार।
जब हो गया रोजी-रोटी का जुगाड़,
तो हो गया गृहस्थी की ओर अग्रसर ,
जीवन-साथी का आगमन हुआ।
जब जागृत हुआ पितृभाव ,
फुहड़ अल्हड़ता ने करवट ले ली ,
तो जिम्मेदारी का भी अहसास हुआ।
इसी बीच पुराने कुछ छूट गए ,
नए कुछ जुड़ गए।
बच्चों के संग बच्चे बन ,
कर्तव्य भार कुछ हलका-हलका महसूस होता रहा।
कलि का कालचक्र बढ़ता रहा ,
शिक्षा-नौकरी -शादी के फेरे में बँधकर ,
बच्चे जा बसे हम से दूर।
पचपन की उम्र में हो रहा कर्तव्य निवृत्ति का बोध ,
आगे सुखमय जीवन की आस ,न हो वृद्धाश्रम में वास।
उमड़ती है रह-रहकर मन लुभावन यादें बचपन की,
मन-मस्तिष्क-हृदय को सदैव हर्षोल्लासित करती।
