बारिश में भीगते...
बारिश में भीगते...
आसमान में
गहरे बादल तैरते ही
मन हो जाते उल्लसित
कान सजग,
सुनने को आतुर
पहली बारिश की टिप - टिप, रिम - झिम।
उतर आते हम
छत पर, आंगन में, सड़कों पर
एक - एक कर गिरती बूंदों को
हथेलियों में थामते
अंजुरी में भर पीने की कोशिश करते
पहली बारिश का अमृत।
छोटे मोटे गड्ढों में कुछ पानी भरता
फ़िर शुरू होता
पहला बरसाती खेल
' छपाक, छपाक, छपाक और...'
खीजते राह चलतों के चेहरे
फ़िर मुस्कातीं उनकी आंखें, हमारी आंखें।
छाता , ना बरसाती
ना होता बीमारी का डर
ना ही देह से लिपटते कपड़ों की सुध
भीगा करते
निर्बाध झमाझम बारिश में;
राह देखते
बारिश के खुलने की
आंखों पर हाथों की आड़ किए
देखा करते उजले, चमकीले सूरज को।
याद नहीं पड़ता
कब आख़िरी बार हमने अंजुरी भर
अमृत पिया होगा
कब भीगे, कब खेले होंगे बारिश में;
गहराते बादल दिखते ही अब
छाते तन जाते हैं,
भीगने के डर से पांव सम्हल जाते हैं,
खुले बादलों की उजास
झेल नहीं पातीं
आंखें अनायास मुंद जाती हैं।