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Kumar Vikash

Inspirational

5.0  

Kumar Vikash

Inspirational

बागवाँ

बागवाँ

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बेवजह देखते हो तुम क्यों नजर से नजर मिलाते हो,

शहर की इन गलियों में आज भी बस तुम नजर आते हो !


क्या खोया पाया था मैंने एक हँसीं से दिल लगाया था मैंने,

बंजर थी ये मेरे दिल की जमीं तुम बागवाँ कहलाते हो !


मचल-मचल जाता था दिल देख कर तेरी हँसी सूरत,

आज भी मैं देखूँ दर्पण उस दर्पण में तुम नजर आते हो !


जब भी बैठते थे तुम करीब मेरे मैं सारे गम भुला देता था,

आज भी जब मैं होता हूँ तन्हा तो तुम बहुत याद आते हो !


भूल पाया मैं नहीं तेरी नजर तेरा शहर तेरी गलियाँ कभी,

महफ़िलों में आज भी मुस्कुराते चेहरों में तुम नजर आते हो !


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