बादलों के पार
बादलों के पार
मैं भी बढ़ कर, बादलों के पार जाना चाहती हूँ
आसमाँ को और भी ऊँचा उठाना चाहती हूँ।
ज़िन्दगी लम्बी बहुत ऊँची अभी भी तो नहीं
आज सब ऊँचाइयों को पास लाना चाहती हूँ।
दूधिया बादल , हमें आकर्षते तो हैं बहुत
नभ के आँगन में तो मैं, हर बार जाना चाहती हूँ
हर घड़ी उल्लास के क्षण, जिन्दगी हैं दे रहे
ज़िन्दगी को और भी, रंगीन बनाना चाहती हूँ।
ख़्वाब मन के , जो नहीं लगते कि पूरे हो सकें
ख़्वाहिशों की मंज़िलें, साकार करना चाहती हूँ
कौन किसकी है ज़रूरत, क्या पता,क्या हो यहाँ
मैं उमर के साथ ख़ुद को भी बढ़ाना चाहती हूँ
मौन क्रंदन से यहाँ कुछ भी नहीं मिलता ‘उदार ‘
हर घड़ी संघर्षरत, ख़ुशियाँ मैं पाना चाहती हूँ।।