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Neeru Nigam

Tragedy

4  

Neeru Nigam

Tragedy

औरत की कहानी

औरत की कहानी

3 mins
275


कोख में आती हूं तब से ही ,

अपने अस्तित्व को बनाये रखने की,

 लड़ाई शुरू कर देती हूं मैं।


कोख से बाहर आती हूं,

अपनें के ही चेहरों पर खुशी कम,

मायूसी ज्यादा देखती हूं मैं।


कितनी ही बार ,

अपने होने से अपनी मां के,

 अस्तित्व को खतरे में देखती हूं मैं।


अगर पैदा हो भी गई,

हर दिन एक नया ताना सुनती हूं,

जो गुनाह किया भी नहीं उसकी सजा पाती हूं मैं।


किसी तरह बचपन बीतता है,

यौवन की दहलीज़ पर आते ही,

वासना के पुजारियों की नज़र में चढने लगती हूं मैं।


सड़क पर, बस में , रेलगाड़ी में जाना,

भयानक अनुभव सा होने लगता है,

हर मोड़ पर खड़े गिद्ध, भेड़ियों से ,

अपनी लाज बचाती रहती हूं मैं।


किसी के प्रेम प्रस्ताव को ठुकरा दूं तो,

अपने बदन, अपने चेहरे को तेजाब,

से जला, गला पाती हूं मैं।


विवाह के लिये लडके को, 

उसके घर वालो को पसंद आ जाएं,

सज संवर कर नुमाइश का सामान बनती हूं मैं।


शादी के बाद ता उम्र,

अपने हक को समझती रहती हूं,

किसी दूसरे के नाम से अपनी पहचान बनाती हूं मैं।


दिवाली पर मूर्त लक्ष्मी की पूजा सब करते,

मगर घर की लक्ष्मी बन,

अपने लिए लोगों की आंखों मे खुद के लिए,

इज़्ज़त, प्यार अपनापन ढूंढती रहती हूं मैं।


ससुराल में दहेज ना ला पाने पर,

या ससुराल वालों की हर मांग पूरी ना होने पर,

आग की लहरों के सुपुर्द पाती हूं मैं।


ससुराल वालों के ज़ुल्म के खिलाफ जाना चाहूं,

अगर उस बंधन को तोड़ने की सोच जीना चाहें,

तो मेरे अपनों को ही बोझ लगने लगती हूं मैं।


अगर अपना पति किसी वजह से खो दूं,

तो विधवा बन जीती हूं,

और ससुराल वालों को खटकने लगती हूं मैं

नीख में आती हूं तब से ही,

अपने अस्तित्व को बनाये रखने की,

 लड़ाई शुरू कर देती हूं मैं।


कोख से बाहर आती हूं,

अपनें के ही चेहरों पर खुशी कम,

मायूसी ज्यादा देखती हूं मैं।


कितनी ही बार ,

अपने होने से अपनी मां के,

 अस्तित्व को खतरे में देखती हूं मैं।


अगर पैदा हो भी गई,

हर दिन एक नया ताना सुनती हूं,

जो गुनाह किया भी नहीं उसकी सजा पाती हूं मैं।


किसी तरह बचपन बीतता है,

यौवन की दहलीज़ पर आते ही,

वासना के पुजारियों की नज़र में चढने लगती हूं मैं।


सड़क पर, बस में, रेलगाड़ी में जाना,

भयानक अनुभव सा होने लगता है,

हर मोड़ पर खड़े गिद्ध, भेड़ियों से,

अपनी लाज बचाती रहती हूं मैं।


किसी के प्रेम प्रस्ताव को ठुकरा दूं तो,

अपने बदन, अपने चेहरे को तेजाब,

से जला, गला पाती हूं मैं।


विवाह के लिये लडके को, 

उसके घर वालो को पसंद आ जाएं,

सज संवर कर नुमाइश का सामान बनती हूं मैं।


शादी के बाद ता उम्र,

अपने हक को समझती रहती हूं,

किसी दूसरे के नाम से अपनी पहचान बनाती हूं मैं।


दिवाली पर मूर्त लक्ष्मी की पूजा सब करते,

मगर घर की लक्ष्मी बन,

अपने लिए लोगों की आंखों मे खुद के लिए,

इज़्ज़त, प्यार अपनापन ढूंढती रहती हूं मैं।


ससुराल में दहेज ना ला पाने पर,

या ससुराल वालों की हर मांग पूरी ना होने पर,

आग की लहरों के सुपुर्द पाती हूं मैं।


ससुराल वालों के ज़ुल्म के खिलाफ जाना चाहूं,

अगर उस बंधन को तोड़ने की सोच जीना चाहें,

तो मेरे अपनों को ही बोझ लगने लगती हूं मैं।


अगर अपना पति किसी वजह से खो दूं,

तो विधवा बन जीती हूं,

और ससुराल वालों को खटकने लगती हूं मैं।


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