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औरत: एक आवाज़

औरत: एक आवाज़

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लड़ती रही सिसकती रही,

कोने बैठ रोती रही,

न आया वो आज न

आया वो कल,

बस तारीख पे तारीख

बढ़ ती रही।


हुए सवालात उठे कई प्रश्न,

चुप्पी साधे वो सब सहती रही,

न्याय अँधा होता है हुआ फिर से

साबित, तेज़ाब से खेली होली

वो सब देखती रही।


जिसे सोचा था जीवन साथी,

वही बना जीवन कातिल,

फेंक दिया उसने तेज़ाब,

छीन ली उसने चेहरे की लाली।


कठोर कृत्य किया उसने,

पर मानना नहीं छोड़ा उसने

अपना जीवन साथी,

मिट्टी सी बुत बन के,

दिलासे दिए जाती ।


उस मर्द ने जो किया वो किया,

वो एक औरत है उसने सब

क्यों सहा ?


कहीं न कहीं ग़लती

समाज की भी है,

क्यों उसने साथ न दिया ,

अरे, वो तो एक औरत है,

और उससे मुँह फेर लिया ।


आज एक औरत झुलसी है,

कल कई और,

तुम एक कदम बढ़ाओगे,

रुक जाएंगे कइयों के पैर ।


ऐ औरत, मत सह तू कुछ भी,

सब कुछ बोल दे,

तू औरत नहीं देवी है,

अपना प्रचंड रूप ले ।


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