अस्तित्व
अस्तित्व
जेब है फट गई... गिर गये है सारे रिश्तें,
इन्सानियत बिक गई वहशीपन के बाज़ार में,
विक्षिप्त समाज के विक्षिप्त लोग,
लाज-शर्म घोल कर पी गये संसार में!!
कब तक? दरिंदगी का शिकार होती रहेगी,
कब रुकेगा... घिनौने वहशियाना खेल का नंगा नाच।।
ना जाने और कितनी मासूमों की बली और चढ़ाई जायेगी,
आज ये है... तो ना जाने कब किसकी बारी है आयेगी।
सोचकर उस भयानक दरिंदगी को? रुह भी है छटपटाती,
चलते-फिरते जिस्मों से भी सडी़-मानसिकता की गन्दी बास है आती,
कुंठित समाज के लोग जागेगे नहीं,
क्यूँकि अभी रात है बाकी,
तैयार हो जाते है पल में कैंडल जलाने को, कुछ दिनों बाद जब एक और प्रियंका है, जल जाती!!