अपराधी कौन
अपराधी कौन
महिला उत्पीड़न के
लोमहर्षक दर्द
नहीं पहुंचते
अदालती चौखट तक,
‘फिर क्या हुआ ?’ का
यक्ष अदालती प्रश्न
लील जाता है
संवेदना की आग !
सुबूतों
और चश्मदीद गवाहों के उपक्रम में
झूल जाती है
न्यायिक व्यवस्था की
प्रत्यर्पण ग्रंथियां,
मर्यादा
और इज्जत निर्वासन
अब जरूरी हो गया है
निरापद
और व्यवस्थायिक न्याय के लिए !
न्याय के मंदिर नहीं
कानूनी दांव-पेचों के
अखाड़े हो गये हैं
शक्ति-प्रदशर्क न्यायालय
दोनों पक्ष
उठाते हैं सौगंध गीता की
पैनी आंखों वाले
सूरदास के समक्ष,
फिर भी अपराधी
बोलता है झूठ
तन्मयता से बैखोफ !
कानून के सताये लोग
बकते हैं गालियां
बहरा है कानून
अंधा है कानून
पंगु है कानून !
अपराधी कौन
गीता,
उसकी सौगंध/
रखवाला सूरदास
या निर्दोष की विपन्नता,
नहीं ढूंढ सकता यह !
इसे सिर्फ सुबूत चाहिए
जो निर्दोष के पास
नहीं हो सकता !
कौन बदलेगा
इस व्यवस्था को !
कौन करेगा न्याय !
निर्बलों की
कन्या राशि का शास्त्र
कौन बदलेगा,
कब तक होती रहेगी
सीता की अग्नि परीक्षा
आखिर कब तक ?