अपनी पहचान
अपनी पहचान
अपनी जड़ों से दूर होते
देख रहे संतानों को
अपनी संस्कृती कैसे
समझाएं इन नादानों को
विज्ञान के प्रतिनिधि बनकर
हमारी सोच अवैज्ञानिक बतातें है
जो भी घोल पिलाते पश्चिम वाले
आधुनिक बनकर पी जाते हैं
खाते थे मोटा अनाज , दूध- दही
पचा लेते थे हम गाय का देशी घी
कितना भी खा लेते थे तो भी
मोटापे , बीमारियों ने घेरा नहीं
अब ब्रेड - बर्गर , पित्ज़ा को ही
"स्टैण्डर्ड खाना" समझते हैं
समझाओ इन्हें नुकसान इनके
हमें ही गंवार समझते हैं
योगाभ्यास कर - कर के हमने
तन - मन निरोगी अपना रखा
अखाड़े में वर्जिश करके हमने
चुस्ती- फुर्ती बनाये रखा
अब जिम में मशीनों से
पसीना बहा कर आ जाते है
खोखली कर लेते काया अपनी
बस डोले फुला कर आ जाते हैं
कोयले- नमक - दातुन से बरसों तक
दांत सलामत रहते थे
हमें बताया गया कि ये सब 'गंदगी'
दांतों को नुकसान करते हैं
आज वही नमक - कोयला
पेस्ट में मिला कर बेच रहे
ये ना हो आपके पेस्ट में तो
साधारण उसे ये कह रहे
हमें जिम की आदत लगाकर
वो योग की और बढ़ गए
हमें मोबाइल पकड़ा कर वो
खुद किताबों में डूब गए
संस्कृत तो है अनपढों का भाषा
खुद वेदों की गहराई में खोए हैं
कब समझेंगे ये साज़िश को हम
की हम खुद से कितने दूर हुए हैं।