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SHALINI SINGH

Abstract

4.3  

SHALINI SINGH

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अफसोस

अफसोस

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मेरी मिट्टी मे नफरत गैरों ने घोली,

अफसोस!

कि अब अपनो का रंग भी उजड़ गया !


किसी रोज़ जो चिडी़यां

तेरे शहर का हाल सुनाती थी,

सुना है किसी उत्तेजना से

उसका पर कतर गया !


तेरी आँखों मे जो बगावत है

क्यूँ बेवजह न मानु के जायज़ है,

कुछ तुझसे तेरा छीन गया

अफसोस!

वो तुझे उस सा कर गया !


मेरी मिट्टी मे नफरत गैरों ने घोली,

अफसोस,

कि तु बेवजह खुद पर तन गया !

कल शाम आंगन मे बैठे

उस बुढ़े की नज़र


तेरी देहरी पर युं टीकी

जैसे ढुंढे कोई बिछड़ा हमसफ़र !

तेरी यादों का वो साया

उसकी आँखों से युं छलक गया

अफसोस !


तुझे लगा कुछ आँखों में अटक गया !

मेरी मिट्टी में नफरत गैरों ने घोली,

अफसोस !

कि कुछ सपनों का सब रंग उधड़ गया !


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