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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Classics

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सतीश शेखर श्रीवास्तव “परिमल”

Classics

अंतस् के शब्द

अंतस् के शब्द

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ध्वनि के पर्वत से निर्झर-निर्झर

लहरों में झर शब्दों के शीकर

पंख फैलाये चली थी डाल-डाल

हो गई वल्लरी सुमनित लाल-लाल। 


वीहड़-वन जीवन में फैला सुनहरा काल

विस्तार करता जाता विटपों का खर-खर

चुपके से आकर बतलाई कानों में चंपा

कमलिनी में कुसुमित हुई है पंपा। 


मंजुल पर मनोरमा की मेघद्वार कम्पा

रंग-बिरंगी गगरी भरती है देखो शम्पा

लख-लख गीतों का होता गुंजन सहल

जैसे बहता सरिता में जल हो कलकल। 


निनादों की उस वीणा से हो हृदय हत

झंकृति हो जीवन पल होकर कल

गुञ्जित होकर खोजे वह फिर हरपल

मुग्धित हो देखे इधर-उधर हो बेकल। 



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