अंतिम स्पर्श
अंतिम स्पर्श
इन दिनों
अच्छा मुस्कराई हूँ
छल की दुनिया में पर
कम, बहुत कम
मुस्कराई हूँ
नन्हे पौधों को देख कर।
मचल जा रही हूँ
बेमतलब के सांसारिक
इनाम पाकर
लेकिन उदास हो रही हूँ
फूटती
जलधारा को देख कर।
सो अब मैं
शहर की ओर नहीं,
जंगल और आसमान की ओर
मुंह कर जोर जोर से
चीखती-चिल्लाती हूँ।
गोधूलि
और संध्या के समय
'मैं 'जी भर कर
रो लेती हूँ
जो शून्य करता है
मेरा होना।
संभवतः 'मैं'
क्लांत मना हूँ,
क्षुब्ध हो चुकी हूं,
मानव योनि में बार बार
जन्म दिए जाने पर।
अब अंतिम
एक स्पर्श चाहती हूँ
चैतन्य का
होना चाहती हूं एकाकार
उस प्रकृति से
जो निस्पृह-निर्दोष है।