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parag mehta

Romance

4.7  

parag mehta

Romance

अनसुना

अनसुना

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ज़माने से तो कुछ ना छुपा सका,

सोचा तुझसे ही छिपा लूँ !

तू देख कर भी अनदेखा कर गया,

सोचा कुछ अनसुना तुझे सुना दूँ !


कहाँ से निकले थे,

यह तो अब याद नहीं !

बड़ी दूर आ गए,

ये खोखले जज़्बात कई !


मुझे भरोसा तेरे भरोसे पर !

तूने तोड़ा नहीं, मैंने जाना नहीं !


पर फिर क्या वजह थी जो आखिर,

ये फ़ासले कहीं बीच आ गए !

चलते चलते इतनी दूर मुसाफ़िर,

यूँ इस तरह आमने सामने आ गये !


ठीक ही है ये नयी सी दूरियाँ

कुछ तो ज़रूर रही होंगी मजबूरियाँ !

अब तो अच्छी लगने लगी ये तन्हाइयाँ

ऐसी ही तो होती है ज़िन्दगानियाँ !


सोचा जब मैंने थोड़ा थोड़ा सा,

तू बता देना कुछ ज़रा ज़रा सा !

फिर किसी बहाने ही सही,

जो दिखा ज़माने को वही !


अनदेखा तूने किया था देख कर भी

तो फिर तुझसे क्या ही छिपा है !

और भरोसा तो मुझे आज भी है

क्यूंकि मैंने तो सुना था अनसुना भी !


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