अनसुना
अनसुना
ज़माने से तो कुछ ना छुपा सका,
सोचा तुझसे ही छिपा लूँ !
तू देख कर भी अनदेखा कर गया,
सोचा कुछ अनसुना तुझे सुना दूँ !
कहाँ से निकले थे,
यह तो अब याद नहीं !
बड़ी दूर आ गए,
ये खोखले जज़्बात कई !
मुझे भरोसा तेरे भरोसे पर !
तूने तोड़ा नहीं, मैंने जाना नहीं !
पर फिर क्या वजह थी जो आखिर,
ये फ़ासले कहीं बीच आ गए !
चलते चलते इतनी दूर मुसाफ़िर,
यूँ इस तरह आमने सामने आ गये !
ठीक ही है ये नयी सी दूरियाँ
कुछ तो ज़रूर रही होंगी मजबूरियाँ !
अब तो अच्छी लगने लगी ये तन्हाइयाँ
ऐसी ही तो होती है ज़िन्दगानियाँ !
सोचा जब मैंने थोड़ा थोड़ा सा,
तू बता देना कुछ ज़रा ज़रा सा !
फिर किसी बहाने ही सही,
जो दिखा ज़माने को वही !
अनदेखा तूने किया था देख कर भी
तो फिर तुझसे क्या ही छिपा है !
और भरोसा तो मुझे आज भी है
क्यूंकि मैंने तो सुना था अनसुना भी !