अनजाना डर
अनजाना डर
दफन कर दिए थे जो सपने,
अपने राजदार दिल के ताबूत में,
हमेशा- हमेशा के लिए।
वो आज भी घुप अंधेरे में
या जब सोचूँ मैं अकेले में,
दैत्यकार हो जाते हैं।
और प्रेत की तरह,
दिल के ताबूत को खोल
आज़ाद हो जाते हैं।
ये पिशाच बन, डराने लगाते हैं।
मुझ पर इल्जाम लगाते हैं कि
तुमने ही हमारी हत्या की है।
मैं अपनी सफाई देती हूँ।
डर से घिघियाती हुई,
रोकर गिड़गिड़ाती हुई
मैं अपना पक्ष रखती हूँ।
पर मेरे सपने अट्टहास करते हैं
और मुझे कहते हैं तुम लाख सफाई दो,
पर अपने सपनों की हत्यारी तुम ही हो।
जो तुमने हमें पूरा करने की ठानी होती,
अपने दिल की आवाज की मानी होती।
तो आज हम भूत नहीं,
तुम्हारा वर्तमान होते।
अब मुझे अपने सपने पूरे करने हैं।
जिससे सपनों को और मुझे,
दोनों को इस त्रास से मुक्ति मिल सके।