अनजान सफर
अनजान सफर
खुद से अनजान कहीं घूमता हूँ
मैं अपनी पहचान ढूँढता हूँ
किस अनजान सफर पे चला हूँ।
मैं अपनी पहचान ढूंढता हूँ।
वक्त तो दौड़ता ही रहा,
मुझसे !
मैं चंद सांसो से ,
मोहलत उधार मांगाता हूँ
जिदंगी के जिस,
मील पत्थर से चले थे कदम
उसी मील पत्थर पे ,
आ के खुद को टटोलता हूँ
किस कदर बंटता ही चला गया
मैं उन टुकड़ों का हिसाब मांगता हूँ।
मैं कौन हूँ ?
कहाँ से आया हूँ ?
क्या करने आया हूँ ?
क्या लेकर जाऊँगा मैं ?
मैं अपनी तलाश करता हूँ
अपने अस्तित्त्व को,
जानने आया हूँ ?
अनगिनत राहों से,
मंजिलो का सफ़र करता हूँ
मैं कौन हूँ ? मैं क्या हूँ ?
इन्हीं प्रश्नों में,
बरसों से बसर करता हूँ
चंद बचे लम्हों में,
अनजान घूमता हूँ
पर एक बार भी
अंतर मन नही टटोलता हूँ।
सारे प्रश्न- उत्तर मेरे भीतर है
और मैं इधर-उधर टटोलता हूँ।
जीवन को,
क्षितिज देने आया हूँ।
लेकिन मैं दुनिया देख
खुद को भूल जाता हूँ।
जब तक यह समझता हूँ
तब तक अपनी,
अवधि समाप्त कर,
मैं उसके समक्ष खुद को पाता हूँ।
फिर अपने अधूरे काम,
खत्म करने की इजाज़त ले।
मैं फिर आ जाता हूँ
कितना खरा उतरता हूँ।
तब तक किये जाता हूँ
जब तक खुद को,
पहचान नहीं लेता हूँ।
अपने दिये हुए ,
लक्ष्य को पूरा करता हूँ।
मैं तब तक,
आता -जाता हूँ।
मैं अपनी पहचान ढूँढतें- ढूँढतें,
अंत में उस आलोक को,
पा जाता हूँ।
मैं अनजान सफर पे चला तो था
आज सोचता हूँ
खुद से वाद वर्षों के मिला तो हूँ।