अंधविश्वास
अंधविश्वास
अब रोक दो या छोड़ दो,
इस डर की लौ को फूँक दो,
बन मूक सहते आ रहे जो कष्ट
वो निज थूक दो।
इक क्रांति की ज्वाला बने,
बढ़ चले उस तूफान सा,
जो ना सुने उस श्याम घन की,
पर्वतों से लड़ पड़े।
इक मैं से कुछ ना हो सका,
जो चला अकेले वो चुका,
सब मानवों को साथ लेकर ,
एक माला में गूथे ।
ये अंध जो विश्वास है,
कुछ और ना बस पाप है,
भर चुका घट अन्याय का,
अब बस करो, इसे तोड़ दो।
चलो साथ मे हम ले शपथ,
इसे रोकना, ना थोपना
इक दीप आशा की लिए,
बस बढ़ चले, अब ना रुके।
