अमृत देकर अब विषपान न करूँगी
अमृत देकर अब विषपान न करूँगी
कोमल काया, सुकोमल अंतरमन,
प्रेम की आस औ नवपल्लवित स्वपन,
कुमकुम भरे पग औ पायल की झनकार,
निश्छल प्रेम लिए चली सजाने तुम्हारा संसार,
सौंप दिया स्व तुम्हें अपना,
तुम्ही को संसार माना अपना,
स्वीकार हर बंधन को कब तक सिर माथे धरूँगी I
अमृत देकर अब विष पान न करूँगी I
रंग दिये तुम्हारे सपने,
तोड़ अपने सपने,
जीया तो बस तुम्हारे लिए ही जिया,
अपना जीवन तुम्हारे नाम किया,
प्रेम अमृत बरसाती रही मैं,
अपनी पहचान मिटाती रही मैं,
अपमान का विष कब तक मैं पीती रहूँगी I
अमृत देकर अब विषपान न करूँगी I
थक गई मैं रिश्तों को सिलते - सिलते,
कब तक ये धागे चलते,
रिश्तों को कब तक रफू करती चलती,
तुम उधड़ते रहते और मैं सिलती चलती,
अब फट गये हैं रिश्तों के चिर,
मन के भावों में बढ़ गई है पीर,
अब इस पीर को पर्वत न बनने दूँगी I
अमृत देकर अब विषपान न करूँगी I