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Pratibha Bhatt

Abstract Inspirational

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Pratibha Bhatt

Abstract Inspirational

अकेला

अकेला

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तन्हाइयों के मेले कितने

अकेले होते है ना

ख़ुद से लड़ने की जंग

हर पल सुलगती रहती है

वो शख्स भीड़ में

होकर भी उसे कुछ

भाता नहीं


निकल जाना चाहता है वो

जल्दी से इस बनावटी

दुनियां से दूरी बनाएं

रखना चाहता है

बेवजह की झंझटी

बातों से

निराकर में आकार

होकर चला जाता है


वो एकांत की खोज में

श्वेत आभा मंडल

लपेटे प्रकृति का

सानिध्य आमंत्रित

करता है पेड़ो की

झुरमटों पत्तों की

सरसरहाट अच्छी लगती है


पहाड़ के किसी शीर्ष पर

खड़े होकर वो देखता है

ऊंचाइयों को जो

उसने अकेले ही तय की है

लगती है दुनियां उसे

छोटी सी स्पष्टता समझ

आती है खुद की

वो अकेला एक नहीं है


करता है उसका भी

कोई इंतज़ार

उस एकांत में

जहां उसकी खोज

उस पर आकर

पूरी होती है.....।


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